Thursday, July 28, 2011

असाध्य वीणा : एक अध्ययन


असाध्य वीणा : एक अध्ययन

(वागीश शुक्ल ने इसे पूर्वग्रह के( ६३-६४ अंक में) दस बर्ष पूरे होने पर लिखा था )
इस कविता को तीन हिस्सों में बाँटने वाले दो विराम-अनुच्छेद है।
चुप हो गया प्रियंवद
सभा भी मौन हो रही।
तथा
वीणा फिर मूक हो गयी।
(कविता के अन्तिम अनुच्छेद)
प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।
की श्रेणी अलग है और उसे कुछ यों समझना चाहिये जैसे प्राचीन कृतियों के अन्त में 'यह कृति पाठक को आनन्ददायी हो’ भाव वाले वाक्य रहा करते थे।)
मौन-अंकित इन विराम-अनुच्छेदों से पूर्ववर्ती नादबोध पश्चाद्वर्ती नादबोध के सातत्य को बिना तोड़े हुए उनमें अंतर किया गया है। ये विराम-अनुच्छेद कविता को सृष्टि-, स्थिति-, और प्रलय-खंडो में बाँटते हैं विश्लेषण के प्रारंभ के लिए सुविधार्थ हम इन खंडो को 'इनपुट' 'डाइनामिक्स' और 'आउटपुट' का अभिधान देते हैं।
'इनपुट' के रूप में हैं प्रियंवद, वीणा और राजा (रानी-राजसभा) । प्रत्येक अपूर्ण है। प्रियंवद इसलिए अपूर्ण है कि वह अपनी साधक की पहचान कलावन्त की पहचान के मुकाबले में करता है:
धीरे बोला राजन् पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य साधक हूँ -
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
(जोर मेरा)
राजा इसलिए अपूर्ण है कि वज्रकीर्ति की साधना अव्यर्थ नही थी, वीणा असाध्य नहीं है, यह विश्वास राजस और इहलौकिक चेतना की शर्तो के भीतर  प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा पुष्ट नहीं हो सका है, वीणा अभी तक जी नहीं है। वीणा इसलिए अपूर्ण है कि किरीटीतरू और वज्रकीर्ति के ऋण को वह अभी तक नहीं चुका पायी, अलोक-सामान्य किरीटी तरू-वज्रकीर्ति और लोकसामान्य राजा के बीच खाई ही बनी रही, जब कि उसे पुल होना चाहिए था।
डाइनामिक्स है प्रियंवद, वीणा और राजा की परस्पर संक्रिया। सके अन्तर्गत अंग,अपंग वीणा में जीवन की ध्वनियों से समृध्द टंगी किरीटी तरू का आह्वान है। इस समृध्दि में
हरी तलहटी में, छोटे की ओट, ताल पर
बंधे समय, वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घर, चीख, भूँक, हुक्का, चिचियाहट है,
झिल्ली-दादुर कोकिल-चातक की झंकार-पुकारों की यति में
संसति की साँय साँय
है। और इस समृध्दि से मंडित
पूरे झारखंड के अग्रज,
तात सखा गुरू आश्रय
त्राता महच्छाय
किरीटी तरू से
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध
का अनुरोध है।
वीणा तभी तक असाध्य है जब तक वह अपने चेतन स्वरूप किरीटी तरू से कटी हुई मानी जाती है जब तक उसके चित् पर जाडय का आवरण पड़ा हुआ है। इस आवरण को भंग करने के लिए वीणा को नही किरीटी-तरू को साध्य स्वीकार करना पडता है। इस स्वीकार के परिणाम में ही वह स्थिति आ सकी हैजिसमें
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था-
काँपी थी उँगलियाँ।
.................................
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
और इस आहत नाद के रूप में
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
ठीक वैसे ही, जैसे संगीत रत्नाकर-टीकाकार कल्लिनाथ का दृष्टान्त उधार लेते हुए, मणिप्रभा से प्रवृत्ता हुए को मणिप्राप्ति हो सकना संभव है।
इसी 'डाइनामिक्स' के दौरान
डूब गये सब एक साथ।
सब अलग अलग एकाकी पार तिरे।
और अन्तत:
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गयी विलय।
'आउटपुट' है सभी का रूपान्तर, अपूर्ण का पूर्णता से साक्षात्कार से गुजर चुकना, आतुर पुकारों का तृप्त पुकारों में बदल जाना।
असाध्य वीणा स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य की सबसे अधिक महत्वाकांक्षी और सबसे अधिक दृप्त कविता है। आधुनिक काव्य अपनी इयत्ता स्फुलिगों के रूप में पहचानता है, अग्नि बनने की न उसमें दृष्टि है, न सामर्थ्य।
एक सुपरिचित और सक्षम शब्दावली का प्रयोग करते हुए इस वाक्य की टीका यह है कि मुक्तक रचने से प्रबन्ध रचना अच्छा है। प्रबन्ध में आख्यात की भूमिका नितान्त गौण भी हो सकती है(जैसे मेघदूत में) और अत्यन्त प्रधान भी (जैसे वाल्मीकि-रामायण में)।
वस्तुत परम्परागत मुक्तकों में कुछ न कुछ प्रबंध विधमान रहता है। एक दोहे में भी यदि आप यह पहचान सकते है कि इसमें खंडिता नायिका है, तो उसमें एक आख्यान भी छिपा हुआ है। फिर भी दोहावली शतक और गाथा वाले कवि की हैसियत थोड़ी नीची हमेशा से रही है। भारतीय साहित्य के ‘शतकों’ में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अमुरूक-शतक की प्रशंसा में अभिनवगुप्त ने यह कहा है कि इसके एक एक मुक्तक में सैकडो प्रबंध हैं, लेकिन इस प्रशंसा का भी भाव मुक्तक को प्रबंध से श्रेयान् बताने का नहीं है, यह प्रशंसा भी काव्य-गौरव की इकाई प्रबंध को ही स्वीकार करती है। यह स्थिति सभी कलाओं में है एक गायन को सभी धातुओं में प्रस्तुत करना प्रबन्ध है जिसकी तुलना में वर्तमान-कालिक शास्त्रीय संगीत की संक्षिप्त प्रस्तुतियों को रखा जा सकता है। आधुनिक काव्य की अभिकल्पना मुक्तक की भी नही सूक्ति की है। फिर  भी साकेत, कामायनी, राम की शक्ति पूजा, का लिखा जाना इसका परिचायक है कि कोई बड़ा काम करने की इच्छा जब कवि के मन में जगती है तो वह आख्यान-काव्य लिखने का प्रयास करता है। इस तरह की रचना में वह अन्य रचनाओं की अपेक्षा अधिक श्रम करता है और अपनी शक्ति की बड़ी परीक्षा के रूप में ऐसी रचना को अपनाता है।
इसी के साथ साथ आधुनिक कवि यद्यपि अपनी काव्य-यात्रा का प्रारंभ सर्वदा तार से करता है लेकिन यदि वह सिरे से ही अकवि नहीं है तो उसे इस शुरूआत  के अताईपन का भान भी होता है और फिर वह सिलसिले की खोज शुरू करता है।
मेरी दृष्टि में असाध्य वीणा की रचना के ये दो कारण है।
इस कविता में 'केशकम्बली' 'वज्रकीर्ति' 'किरीटी-तरू' 'वासुकि नाग' 'डमरू-नाद' तथता’,‘महाशून्य’,‘महामौन’,‘अविभाज्य’,‘अनाप्त,अद्रवित,अप्रमेय,'अभिमंत्रित', 'मंत्रपूत','राजा','रानी','राजसभा','सतलड़ी माल', ये सब मिलकर एक पौराणिक प्राय परिवेश की सृष्टि करते हैं। हिन्दी समीक्षा के पत्रा ही तिथि पाइये देखते ही कवि को ज्योतिर्विद घोषित कर देने के संस्कारों के नाते जैसे ही किसी कविता में मनुष्य से बड़ी किसी चीज का होना स्वीकार किया जाता है वैसे ही वह कविता वेदान्त या षट्-चकभेद तक पहुँचा दी जाती है। लेकिन यदि असाध्य वीणा रहस्यवादी है तो उसी अर्थ में जिस अर्थ में, सारी कविता रहस्यवादी होती है।
कहीं कहीं जीतने का एक ही तरीका बच जाता है और वह है हार मान लेना। यह कहीं कहीं हमेशा नही होता यह उसी जगह होता है जहाँ आपका युध्दोन्माद ही आपका शत्रु होता है जहाँ साधना के प्रयास ही सिध्दि में रोड़े होते है
असाध्य वीणा की सारी भावभूमि यही है। जो अपने को कलावन्त समझकर वीणा बजाना चाहता है, वह असफल रहता है, जो वीणा को वृक्ष का रूपान्तर स्वीकार करके वृक्ष को अपनी सारी समृध्दि में मुखर होने के लिए सच्चे मन से विनय करता है, वह सफल रहता है। सफल इस अर्थ में कि एक ओर तो वह स्वर के प्रत्यक्षीकरण में वीणा के साथ-साथ माध्यम का कार्य करता है और दूसरी ओर यदि वह वीणा को वहाँ ले जा सकता है जहाँ से वह बनी थी, तो वह अपने को भी उसके साथ-साथ वहाँ तक ले जाने के लिए मजबूर है जहाँ से वह खुद बना था। और ज बवह यह पाता है कि यह प्रस्थान- बिन्दु एक ही है तब उसमें और वीणा में वह सहज संबंध( साथ उत्पन्न होने का संबंध ) स्थापित होता है जिसके बिना वीणा बोलती नहीं। इस लिहाज से प्रियंवद केशकम्बली के इस कथन
श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था-
सुना आपने जो वह मेरा नहीं
न वीणा का था:
...........................
में प्रारंभ की चार पंक्तियाँ फालतू है( और पहली में तो एक चित कृत्रिमता की भी झलक है) क्योंकि वे फिर अहंकेन्द्रिता को ही स्थापित करती हैं जिसके सीधे विरोध में इस कविता की भावभूमि है। यह कथन 'अप्रासंगिक' तो नहीं है, क्योंकि राजा प्रियंवद ही साधुवाद दे रहे हैं, रानी प्रियंवद को ही सतलडी माल दे रही जनता प्रियंवद को ही स्वरजित् कह रही है, लेकिन इन सबके प्रतिवाद में शेष पंक्तियाँ ही उपस्थित होती हैं पहली चार पंक्ति नहीं।
इसी प्रकार, प्रियंवद द्वारा किरीटी-तरू के आह्मन में,
, मुझे भुला
तू उतर बीन के तारों में
के अन्तर्गत 'मुझे भुला' प्रबंधार्थ की पुष्टि नहीं करता, क्योकि पूर्ण समर्पण नहीं है, शिष्टाचार वश किरीटी-तरू के अवतरण में बाधा न बनने का प्रस्ताव है। तुलना के  लिए, 'भूल अकिंचनता को मेरी’, जो इसके पूर्व आया है, प्रबंघार्थ की पुष्टि करता है।
कविता में ध्वनियों का स्वरूप भी इसी भावभूमि से नियमित है. एक ही स्वर है जो लोगों को अलग अलग सुनाई पड़ता है। चूँकि ध्वनि वर्णन में दो विरूध्दों को एक साथ रखने की कोशिश की गयी है इसलिए हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस प्रयास की अनुज्ञा (इम्परेटिव) ढूढें और फिर उससे जो बना उसकी भी पड़ताल करें।
असाध्य वीणा में 'अद्वैतं सुखदु:खयो:' ही विरूध्दों के युग्म-स्थापन की अनुज्ञा रही है-- दो विरूध्दों के ऊपर कोई एक चीज सदा रहती है, विरूध्द होना पूरी सच्चाई नहीं है। अपनी असली ऊँचाई में विरूध्दों के एतादृश युग्मस्थापन का काव्यात्मक प्रयोग इस उदाहरण में देखा जा सकता है-
करालभालपट्टिकाधगद् धगद् धगद् ज्वलद्
धनंजयाधरीकृतप्रचंडपंचसायके
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम॥
(=ललाट में धधकती हुई अग्नि से प्रचंड कामदेव को पराजित करने वाले पार्वती के कुचाग्रों पर पत्ररचना के अध्दितीय शिल्पी, भगवान् शंकर में मेरी मति हो)-शिवताण्डवस्तोत्र
असाध्य वीणा में विरोध की तलाश कई तरह से की गयी है। ' सहमी सी पायल-ध्वानि ' के विरोध में 'किलकारी', ‘रूँधी चाप' के विरोध में ' बहते जल की छूलछूल', ‘उत्सव - ढोलक की थाप, के विरोध में 'अनमनी बाँसुरी'। यह केवल ध्वनिमूलक विरोध है, आनन्द-विषाद-मूलक नहीं। बाँसुरी के अनमनेपन और ढोलक की उत्सवधर्मिता की भूमिका वहीं है जो पंचम स्वर में पिक की भूमिका है, पंचम स्वर की समग्रता का अंश पंचम स्वर होगा। यहाँ 'ढोलक की थाप' वर्ण्य है उत्सव धर्मिता उसका अंग।
विरोधी ध्वनियों के युग्मस्थापन में आनन्द-विषाद-मूलकता को गौण रखने से स्वर की मूल सत्ता की एकरूपता और श्रोताओं में उसका उपाधि-भेद से रूपान्तर अग्रप्रस्तुत किया गया है। इसमें जिस जगह से बयान दिया जा रहा है वह जगह स्वर की एकरूपता वाली, प्रियंवद वाली, वीणा वाली जगह है, लिहाजा वहाँ से यही स्वाभाविक है कि कवि की असहभागिता नियामक रूप में वर्तमान रहे। लेकिन इसका निबाह भी हो नहीं सका:---
     ................  ................
...............  ..................
इसको जीवन की पहली ऍंगडाई
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल
में 'पर' का प्रयोग यह सूचित करता है कि ' जीवन की पहली अँगड़ाई' और' महाजृम्भ विकराल काल' में विरोध की 'यथार्थता' का भान कवि को है। लेकिन यह 'यथार्थबोध' पहले के यग्मों में नहीं था (और ठीक ही नहीं था) तो अब अचानक पर' की जरूरत क्यों आ पड़ी ? इसका कारण यही समझ में आता है कि पहले के विरूध्द-युग्म पूरी तौर पर विरूध्द-युग्म नहीं स्वीकृत किये गये थे अगर कुछ विरोध था तो 'द्रुत' और' विलंबित' का था जिसे कुछ तुच्छ समझा गया। यह पहला विरूध्द- युग्म है जो 'यथार्थ' है। लेकिन यथार्थ होना और चीज़ है सत्य होना और चीज।
'मै' को 'तू' में मिलाना, लेकिन ऐसे कि मैं का ' एड्रेस' न गायब हो, उसे 'रिट्रीव' किया जा सके, कड़वे और मीठे में फर्क न करना लेकिन तभी तक जब तक ज्यादा कड़वा और ज्यादा मीठा न सामने आ जाय ये आधुनिक चिन्तन की लक्ष्मण-रेखाएँ हैं जिनको पार करने में आधुनिक काव्य समर्थ नहीं है, क्योंकि फिर वह अपनी आधुनिकता ही खो देता है।
लेकिन यह टिप्पणी पूरी बात नहीं कहती। मैंने प्रबंधार्थ और उसकी अपुष्टि का उल्लेख किया है, किन्तु काव्यचिन्तन की यह भाषा कृति और पाठक के सख्य को स्वीकार करके चलती है, दास्य को नहीं। आधुनिक काव्य 'टेक इट आर लीव इट' के आधार पर लिखा जाता है, जिसमें पाठक को कुल मिलाकर' फीडबेक' के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए , अभी तक की चर्चा के आधार पर मैं असाध्य वीणा का पाठ नहीं बदल सकता , सिर्फ उसे अच्छा या बुरा बता सकता हूँ। यदि मैं इस पर प्राचीन शैली में टीका लिख रहा होता तो मुझे यह अधिकार था कि मैं मूल शब्द को अस्वीकार करके अपना पाठ प्रस्तुत करूँ और उसी की व्याख्या करूँ। लेकिन ऐसा करना 'एकतरफा' होगा।
आख्यान-वाक्यों, और विविध वर्णनों के नीचे जो चीज कविता को एक बनाती है वह है उसका एकसमान प्रवाह। 'एकसमान प्रवाह' से मेरा क्या मतलब है, पहले यह बताना जरूरी है। कविता का अन्तिम स्वरूप पाठक के सामने अपने सृष्टि-क्रम की होती है, उसे बाहर से भीतर आना पड़ता है। अत:यह आवश्यक है कि कविता में कुछ स्थूल संकेत हों जिनके सहारे भीतर आया जाय, दूसरी तरह से यह कह सकते हैं कि कविता का सारा कर्म ('वर्क') इसी स्थूलता की प्राप्ति है।
छंद और अलंकार इसी आधार पर चुने जाते हैं। यदि मेधदूत में मन्दाक्रांता छंद चुना गया है जिसमें 17 अक्षरों के भीतर दो बार ठहरना पड़ता है तो इसीलिए कि सारा बयान व्यथा में डूबे हुए यक्ष का है। चाहे रास्ते का बयान हो, चाहे श्रृंगार-चेष्टाओं का, मेधदूत का वाचन एक ही तरह से, धीमे धीमे और दर्द भरे लहजे में करना चाहिए तभी वह काव्य अपना स्वरूप उजागर कर पाता है। इसी तरह राम की शाक्तिपूजा का छन्द भी शाक्ति की अर्चना के दृढ़ संकल्प को लगातार जताते रहने के लिए वेगवान् चुना गया है और उसे यति-हीन ढंग से ही पूरा पढ़ा जाना चाहिए चाहे वह युध्द वर्णन हो चाहे 'संशय-वर्णन हो (जिसे हिन्दी के निरालाविद् 'प्रथम प्रणय' का वर्णन बताते हैं)।
असाध्य वीणा का रचनाकाल हिन्दी का वह दौर है जिसमें कुछ नया करना उतना जरूरीं नहीं जितना कुछ नया दिखाना। आधुनिक हिन्दी कविता ने छंद में न लिखी जा कर क्या खोया और क्या पाया है इसकी पड़ताल का यहाँ अवकाश नहीं किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि यदि छन्द का चुनाव सोदेश्य  होता था तो छन्द का अस्वीकार भी सोदेश्य है और उसके बड़े सशक्त कारण होने चाहिए, क्योंकि वह हजारों वर्षो से चले आते एक नियम का उल्लंधन है। जहाँ तक असाध्य वीणा का प्रश्न है, छन्द के अस्वीकार का क्या मतलब है, इसको थोड़ा स्पष्ट करना आवश्यक है। इस कविता को यों भी लिखना शूरू कर सकते है:-
आ गये प्रियंवद केशकम्बली गुफा- गेह
राजा ने आसन दिया। कहा कृतकृत्य हुआ
मैं तात।पधारे आप, भरोसा है अब मुझे
को साध आज मेरे जीवन की पूरी हो---
गी। लधु संकेत समझ राजा का गण दौड़े।
यह तो निश्चित है कि यह छन्दोविधान कवि के मन में विधमान रहा है, किन्तु यह भी निश्चित है कि यह साग्रह तोड़ा गया है। ऐसा क्यों किया गया? एक तो यह कारण दिखायी देता है कि वाक्य या वाक्यखंड जैसे ही कोई बात बता चुकते हैं, नयी पंक्ति प्रारंभ कर दी जाती है। इस तरह जोर इस बात पर है कि हम पढ़ते समय कहाँ ठहरेंगे, यह तो करना बयान का काम हैं। जिन कविताओं में यह आग्रह हुआ करता था कि 'माष' की जगह 'मष' लिख देना क्षम्य है लेकिन छन्दोभंग क्षम्य नहीं है, उनसे इस कविता का आग्रह ठीक उलटा हैं। इस आग्रह का एक क्षीण संबंध वहाँ से तो जोड़ा जा सकता है, जहाँ यह विचार केन्द्रीय होता था कि वीर रस के लिए यह छन्द ठीक रहेगा और श्रृगार के लिए यह छन्द, लेकिन फिर इसमें वाचन की एक बहुत गहरी पहचान की माँग है।
इस कविता के वाचन की दो अलग-अलग शर्तें हैं। एक यह कि कविता में ध्वनियों का सर्ग-प्रतिसर्ग अपनी मायात्मकता का त्याग न करे। दूसरी शर्ते यह है कि शब्द खंडो की ध्वनि-परक माँग को वाचन में अवश्य उतारा जाय , उदाहरण के लिए 'तू गा, तू गा, तू गा, तू गा,' के पढ़ने में वीणा की नकल करने का लोभ संवरण करना असंभव है। इन दो शर्तें को एक साथ निभाने का मेरी दृष्टि में एक ही तरीका है वह यह कि 'तरू-तात को सम्बोधित करके प्रियवंद ने जो कुछ कहा है, उसे तो पूरी सम्पृक्ति के साथ पढ़ा जाय, क्योकि वह संवाद माया नहीं है, उसमें आने वाली ध्वनियाँ तरू-तात की समृध्दि हैं और 'गोदी बैठा मोद-भरा बालक' होने के नाते प्रियवंद का उस समृध्दि में हिस्सा भी है। लेकिन राजसभा में जो ध्वनियाँ सबको सुनायी देती है, वे माया हैं और उन्हें असम्पृक्ति के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
इस तरह से देखने पर 'एक समान प्रवाह' की पहचान वाचन में लगाव और बिलगाव के इस निबाह से की जा सकती है। लेकिन यह निबाह छन्द में नहीं हो सकता था, यह कहना गलत है। इसलिए छन्द के अस्वीकार का हमारे पास फिर वहीं एक कारण बचता जो ऊपर लिखा गया- ठहरना वहाँ है जहाँ बात का एक टुकड़ा समाप्त होता हो। मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि हर पंक्ति एक, और कभी-कभी लगातार कई पंक्तियों में एक, छन्द को पहचान जा सकता है। इसकी संगति और सार्थकता भी खोजी जा सकती है लेकिन मैं इस बात की और इशारा करना चाहता हूँ कि निबन्धन को लोकलाइज किया गया और उसके ग्लोबल प्रारूप को साग्रह अस्वीकार किया गया है।पूरा का पूरा यति विधान  सौंप देने का मतलब यह होता है कि वही व्याकरण स्वीकार किया जा रहा है जो गद्य में उपलब्ध है। जिन लोंगों ने छन्दोबध्द लिखा है, जैसे कि अज्ञेय ने, उन्होने छन्द क्यों छोड़ दिये और यह करके उन्होंने ऐसा क्या किया जो वे छन्दोबध्द लिखते हुए नहीं का सकते थे, इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
प्रस्तुत प्रसंग में, विस्तारभय से केवल संकेत के रूप में, इतना जोड़ना चाहता हूँ कि 'लोकलाइजेशन' अपने आप में बुरी बात नहीं यादि उसकी अनुज्ञा हो, यदि वह 'कविता की माँग' हो।
उदाहरण के लिए मंचीय प्रस्तुति एक अनुज्ञा हो सकती है। किन्तु बिना किसी वृहत्तार पारतंत्र्य की स्वीकृति के, कवि की निरंकुशता प्रमाण न रह कर प्रमेय बन जाती है। इस कविता में, जो 'नया' है, उसमें यह प्रमाण-प्रमेय-प्रत्यय भी शामिल है।   
'नया' होने का क्या मतलब है?
एक शब्द लीजिए, 'संधीत'---
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी
संधीत हुई
पा गयी विलय।
'संधीत' कवि-निर्मित शब्द है। पुरानी कविता होती तो यह 'असाधु प्रयोग' माना  जाता, इस दोष गुण में बदलने के लिए छन्द निर्वाह या श्रुतिमधुरत्व किस्म के किसी अनुशासन की शरण लेनी पड़ती और फिर भी रामचन्द्र शुक्ल जैसे समीक्षक का डर बना रहता जो यह पूछते कि क्या शब्दभंडार इतना चुक गया है कि आपको 'खुशबू' का 'खसबोय' बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। लेकिन कविता नयी है इसलिए यह जिम्मेदारी पाठक की है कि वह इस शब्द निर्माण की अनुज्ञा खोजे। यहीं से आप उस जाल में फँसना शुरू करते हैं जिसमें पहले कविता नयी होती है और फिर सिर्फ उसके नये होने के नाते काव्यशास्त्र नया होने लगता है। इस तत्समाभासी शब्द से किसी काव्यात्मक अभिप्राय का सुष्ठु संप्रेषण नहीं हो सका है। शब्द निर्माण कवि का काम नहीं है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में नवीन भाषिक प्रयोगों की आवश्यकता पड़ सकती है जैसे विज्ञान-कथाओं में या जैसे कि जेम्स ज्वायस ने या ऐटनी बर्गेस ने किये हैं। किन्तु उसमें सुष्ठु समंजन (=गुडनेस ऑफ द फिट) का बहुत ही सूक्ष्म सन्तुलन वांछित है। यहाँ ऐसा कुछ नहीं हैं सिर्फ 'पुंजीत', खंडीत जैसे शब्दों के इस्तेमाल का रास्ता जरूर उनके लिए खोल दिया गया है जिन्हे गलत काम करने के लिए सही आदमी का सहारा चाहिए। (ये ही बातें विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित और 'आज के लोकप्रिय कवि'- माला में प्रकाशित अज्ञेय के काव्य संकलन में असाध्य वीणा के मुद्रित पाठ के अन्तर्गत 'संधीत' की जगह दिये गये शब्द ' सन्धीत' पर भी लागू होती है। आशा है उसे 'सन्धि+इत'= 'सन्धि को प्राप्त हुई' या वैदिक 'धीत' में 'सम्' जोड़कर बनाया गया बताने की चेष्टा न की जायेगी।) उत्प्रेक्षा का यह उदाहरण लीजिए-'संगीतकार की ऑंखों में ठंडी पिधली ज्वाल-सी झलक गयी' इस पर मुझे कई आपत्तियाँ हैं लेकिन मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि 'ज्वाला' के साथ 'ठंडी' विशेषण के रूप में और 'झलक गयी' क्रिया के रूप में क्यों आया है इस पर विचार करने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जो शब्द इस्तेमाल किया जा रहा है वह ' ठंडी' नहीं हैं 'कोल्ड' है। झलक गयी' के साथ और बहुत सी बातें हैं और इस वाक्य के शाब्दबोध में कर्ता-क्रिया में विशेषण विशेष्य संबंध की पड़ताल बहुत लम्बी होगी, अत: विस्तार भय से इस प्रकरण को यहीं रोकना आवश्यक है। छन्द, व्याकरण और अलंकार की जो बातें अभी मैंने उठायी हैं उनको लेकर यह कहा जा सकता है कि 'दोष दर्शन' की यह पध्दति अब काव्यचर्चा में 'प्रासंगिक' नहीं हैं। लेकिन, अब, यह 'दोषदर्शन' है ही कहाँ ? जिस ज़माने में आलोचक फालतू हों, कविता के लिए 'नयी' विशेषण झटपट चालू हो जाता हो, और किसी को यह बात, अजीब न लगती हो, 'हमसे पहले के कवि 'और' हमसे बाद के कवि' जैसे शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल किये जाते हों, उसमें कविकर्म सहदय के सामने रसभोग के लिए नहीं प्रस्तुत होता क्योकि तब जो आपको सुस्वादु नहीं लगता उसके बारें में आपको यह सूचित किया जा सकता है कि यह मसूर की दाल है जिसको खाने का आपका मुँह नहीं था।
जिस समय यह दावा शुरू हो जाय कि हमारे सोने को परखने के लिए आपको कसौटी बदलनी पड़ेगी, उस समय जो दरअसल सोने को, कीमती चीज़ मानते हैं, उन्हे कुछ चिन्ताएँ सतानी चाहिए। यदि हिन्दी में अभी इन चिन्ताओं के लक्षण नहीं दीख रहे हैं तो यह शुभ नहीं है। इसके मानी ये होते हैं कि कविता धीरे-धीरे एक 'ट्रीवियलिटी' के रूप में बदल गयी है, जो कुछ है सब कविता है। यदि कवि स्वयं का रचयिता भी है, काव्याशास्त्री भी, और सहदय भी, तो यह  आटोइराटिसिज्म ' से लेकर ' मेगालोमैनिया ' तक कुछ भी नाम पा सकता है लेकिन यह काव्य नहीं है।
असाध्य वीणा जिन शर्तों पर लिखी गयी है, वे ये शर्तें हैं। यह बात अलग है कि वह एक 'बहुत अच्छी कविता' भी बन सकी है। असाध्य वीणा के सधे हुए शब्द-चयन और भाषा के 'डिप्ल्वायमेंट की भूरि- भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए। इस कविता में (जैसे कि अज्ञेय की अन्य कविताओं में भी, या उनके गद्य में) ढीलेढालेपन की वह शिकायत नहीं की जा सकती जो फिराक साहब खड़ी बोली हिन्दी कविता के बारे में किया करते थे और जो अनर्गल नहीं थी, चाहे द्वेषमूलक ही रहीं हो। आधुनिक हिन्दी कविता की भाषा में एक सिंगार है और उसकी नोकपलक इस कविता में बिलकुल दुरूस्त है।
यहाँ इसकी जरूरत मैं नहीं समझता कि
पन्थी के धोडे क़ी टाप अधीर
अचंचल धीर थाप भैसों के भीरी खुर की
या
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिए
और आठवें को कुलिया की कटी मेड़ से बहते जल की छुल-छुल
जैसी पंक्तियों की ''कैलीस्थेनिक्स'' का लंबा गुणगान करूँ। बहुत संक्षेप में, इतना कहना पर्याप्त होगा कि अज्ञेय की भाषा खड़ी बोली हिन्दी के लिए प्राप्ति है और एक 'क्रेशकोर्स' से गुज़ार कर उसे बहुत सी बातें कहने लायक बनाना उन्हीं का काम था। इस पूरी कविता को उसके उदाहरण में प्रस्तुत कर सकते हैं।
लेकिन मैं एक बिलकुल दूसरी बात कह रहा हूँ। इस कवित के शब्द चयन में लापरवाही कतई नहीं है, लेकिन परवाह कितनी है इसका अन्दाजा कुछ शब्दों पर विशेष विचार करने से ही प्रकट होगा। हिन्दी में खुल कर दाद देने का रिवाज ज़रा कम है इसलिए अगर मेरे लिखने में कहीं 'बहतु खूब' की झलक आ जाय तो क्षमा चाहूँगा।
किरीटी
'किरीटी-तरु' एक साथ बहुत-सी बातें कहता है। किरीटी का मतलब 'मुकुटधारी' तो है ही, किरीटी -तरु, वृक्षराज हुआ। लेकिन 'किरीटी' अर्जुन का भी नाम है और जो नाम पाण्डुपुत्र अर्जुन के हैं वे अर्जुन नामक वृक्ष के भी हैं। वे सारे नाम वीणा के तूंबे के भी है। किरीटी शब्द का चुनना बहुत दादतलब है।
 कारुवाद्य
'कारु' आ अर्थ है 'शिल्पी' लेकिन यहाँ इतन पर्याप्त नहीं है। कारु विश्वकर्मा को भी कहते हैं उससे 'कारुवाद्य' में एक गरिमा आती है। कारु का वैदिक प्रयोग 'गायक' या 'कवि' के अर्थ में है और यहाँ 'वैदिक युगीन गायक के द्वारा प्रायोज्य वाद्य', यह अर्थ चुन सकते हैं, जो संदर्भ की दृष्टि से सबसे उत्तम होगा।
 स्वयम्भू
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिस में सोता है अखण्ड
ब्रह्मा का मौन
में 'स्वयम्भू' संगीत का विशेषण माना जाना चाहिए। संगीत के सुप्रसिध्द 'आहत' और 'अनाहत' दो प्रकरों के अतिरिक्त 'स्वयम्भू' भी एक नाम मिलता है जो 'अनाहत' दो प्रकारों के अतिरिक्त 'स्वयम्भू' भी एक नाम मिलता है जो 'अनाहत' से अलग है। इस समय सुपरिभाषित  शास्त्रीय व्याख्या के अनुपलब्ध  होने के नाते यह माना जाता है कि स्व्यम्भू स्वर यह है जो किसी दूसरे स्वर के बजाने पर स्वयं उत्पन्न होता है, उदाहरण के लिए षड्ज के लिए प्रयत्न करने पर षड्ज के साथ-साथ पंचम भी सुनाई देता है, इसी प्रकार ऋषम के साथ-साथ धैवत भी उत्पन्न होता है। जो संगीत अवतरित हुआ है वह 'अनाहत' नहीं है क्योंकि उसके पहले 'संगीतकार का हाथ उठा था', लेकिन वह ठीक-ठीक वहीं संगीत भी नहीं है जो उसके यत्न से उत्पन्न हो गया हो। 'स्वयम्भू', बहुत ही सटीक चुनाव है।
 श्रुति
मेरे अंधियारे अन्तस् में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का
तू गा तू गा तू गा तू गा
में संगीतशास्त्रीय शब्द 'श्रृति' को 'स्मृति' के साथ-साथ रखने में 'श्रुति' में एक अपौरूषेयत्व की झलक आ जाती है। इस क्रम का निर्वाह भी बाद में 'मुझे स्मरण है' से प्रारंभ होने वाले खंड़ों और 'सुनता हूँ मैं' से किया गया है। यह प्रयोग भी अत्यन्त प्रशंसीय है।
गमक
'इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुंघरू की' में 'गमक' का प्रयोग बेहद सूबसुरत है क्योंकि 'गमक' सिर्फ़ घ्वनि नहीं है, अलंकार है।
 स्पर्श
कर के प्रणाम
अस्पर्श छुअन से छुए तार
में 'अस्पर्श 'छुअन' का एक खास मतलब है। 'स्पर्श', वादन प्रक्रिया का एक अंग है जो तार को 'काटने' से मिलत-जुलता है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि तार छुए नहीं गये, यह कहा जा रहा हे कि उनका 'स्पर्श' नहीं किया गया, वादन का कोई प्रयास नहीं किया गया। यह बहुत ही रम्य शब्द-चयन है।
स्वरकम्पन
 यह भी संगीतशास्त्र का शब्द है। स्वर को 'काँपने' को 'कंपन’ कहते हैं और
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझ को मुझ से सोख
वायु-सा नाद भरा मैं उड़ जाता हूँ
में प्रयत्न-जन्य संगीत की अप्रयत्नजन्य संगीत से जुड़ पाने के अभाव में क्षतिपरकता का भी संकेत है।
ऊपर गिनाये गये शब्द , शास्त्रीय भण्डार से चुने गये है और उनका प्रयोग कहीं शास्त्रीय अभिधार्थ में, तो कहीं गुणीभूतव्यंग्यार्थ में किया गया है। यह शब्द-चयन में सावधानी का एक प्रकार है।
लेकिन दूसरी ओर
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आर्शीर्वाद
में 'नि:संख्य' शब्द को लीजिए। यह 'असंख्य' का पर्यायवाची लेकिन हिन्दी में 'नि और 'निर' वगैरह अधिकतर अशोभन बताने के लिए प्रयुक्त होते हैं, 'निष्पाप' और 'निर्दोष' के बावजूद 'असंख्य' जहाँ 'बहुत अधिक' का उचित अर्थ देता है, वहीं से एक अमांगलिक ध्वनि निकलती है जो यहाँ वांछित नहीं थी।
शब्दों को इतनी गहरी परख के साथ-साथ उनकी व्यंजनाओं इस तिरस्कार को कोई मेल नहीं है। भाषा पर लापरवाही व आरोप नहीं लगाया जा सकता, यह मैं पहले ही कह चुका हूँ। यह 'केयरलेस' -धर्मिता नहीं है।
यह 'कुडन्ट-केयर-लेस'--धर्मिता है जिसकी ओर मैं इस समीक्षा में बार-बार इशारा कर रहा हूँ। वस्तुत: आधुनिक हिन्दी काव्य की मूल प्रतिज्ञा राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त द्वारा निर्धारित कर दी गयी थी-
कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता,
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?
'विषयोत्कृष्टता'- सिध्दान्त का सबसे घटिया इस्तेमाल 'प्रगतिशील साहित्य परम्परा' ने किया है--जिसकी 'आगे डीलदार गुम्बज अवाज़दार फिस्स' कविताओं के मूर्धन्य उदाहरण मुक्तिबोध की कविताएँ हैं। लेकिन विषयोत्कृष्टता के जहाज पर बैठे हुए आधुनिक हिन्दी काव्य के कवि-पंछी, चाहे वे कौवें हों,
चाहे गरुड़, बहुत दूर तक उड़ नहीं पाते। असाध्य वीणा के सन्दर्भ में मैं दो बातें इस मुद्दे को लेकर उठाना चाहता हूँ।
सृष्टि-स्थिति माडल का समीक्षा के प्रारंभ में नाम लेकर मैंने दूसरा माडल चुन लिया था। इसका कारण पहले माडल की वे माँगे हैं जिनको पूरा करना या पूरा करने का इरादा करन आधुनिक कविता के बूते के बाहर का काम है; लेकिन मान लीजिए कि हम कोशिश करते हैं।
बिलकुल स्थूल शब्दावली में बात करते हुए, इस कविता के काव्य-जगत् का सर्ग एक आदमी (प्रियवंद) के आने, स्थिति उसके यहाँ मौज़ूद रहने और प्रतिसर्ग उसके लौट जाने से सूचित है। यह आदमी एक बाहरी आदमी है, यद्यपि लोग उसे इतना जानते हैं  कि वह उनके किसी काम आ सकता है। वह काम होता भी है, लेकिन वह कभी काम नहीं होता जो लोगों ने सोच रखा था, कुछ दूसरा ही होता है। असाध्यवीणा के संगीत से गुजरने के बाद, जो हर एक के लिए अलग लेकिन खुद एक है, लोग वहीं नहीं रहते जो पहले थे। यहाँ तक की प्रियवंद भी, जो पहले 'गुफा-गेह' था अब अपनी 'गेह-गुफा' को जाता है। प्रियवंद के साथ-साथ सभी एक नदी में डूबे और फिर एक ही किनारे पर उतरे, भले ही उतरने की जगहें अलग-अलग हों। संगीत के पहले हर आदमी एक लोक था। संगीत के बाद भी हर आदमी को वहीं लोक वापस मिलता है- 'सब अपने अपने काम लगे'--लेकिन उसके साथ-साथ व्योम-काल में उस लोक के 'कोआर्डिनेट्स' भी मिलते हैं। गोचर प्रतीतियों पर वापसी में अब एकाकीपन नहीं है, अब सभी अंग है और अंगी को सबने एक बार देख लिया है।
क्या इस बात को जताने के लिए 'युग पलट गया' कहना उचित है? 'युग' की अवधारणा वही है जिसका एक सुव्यस्थित रूप उदाहरण के लिए हीगल में मिलता है। काल ईश्वरीय निर्मिति है और इसके प्रत्याख्यान के रूप में ही  आधुनिक 'इतिहास' का निर्माण होता है जिसमें युगों की अवधारणा होती है। एक सीमित अर्थ में 'युग पलट गया' का व्यवहार सही हो सकता है, उदाहरण के लिए युग कोपर्निकस से या फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति से या भारतेन्दु हरिश्चंद्र से पलट सकता है। लेकिन जहाँ इतिहास 'डिस्कोर्स' की सुविधा के लिये रचा गया परिभाषिक शब्द न रह कर एक शक्ति के रूप में स्वीकार किया जायेगा वहीं से दुर्घटनाएँ प्रारंभ हो जायेंगी जो पिछली दो शताब्दियों के वैचारिक जीवन को पंगु, और फिर और पंगु, करती जा रही है।
(शब्द साम्य के बावजूद, मुझे आशा है कि विद्वत्समाज 'युग पलट गया' को कलियुग का सतयुग में बदलना साबित करने की कोशिश न करेगा। प्रियंवद कल्कि नहीं है, और पौराणिक युगक्रम कोई 'फोर्स' नहीं है। कल्कि के आने से कलियुग समाप्त होता है, कलियुग के समाप्त होने से कल्कि आता है। इस कविता में 'युग' का मतलब है 'एज')
एक दूसरी समस्या पर विचार किया जाय। किरीटी तरू के बारे में राजा कहते हैं
और सुना है-जड़ उसकी जा पहुँची थी पाताल लोक
उसकी गन्ध प्रवण शीतला के फण टिका नाग वासुकि सोता था
लेकिन जब वही किरीटी-तरू प्रियंवद के सामने उपस्थित होता है, तो उसका वर्णन इस रूप में है-
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित।
जो किरीटी-तरू पहले वासुकि का सहारा था अब वासुकि उसका सहारा कैसे हो गया? आगे कुछ कहने से पहले यह स्पष्ट कर देना उचित है कि यहाँ स्थिति उस स्थिति से बिल्कुल भिन्न है जो पियंवद के पहले किरीटी-तरू/वीणा का बालक बनने में और बाद उसकी माँ बनने की स्थिति है। उस तर्क को यहाँ लागू करने पर वही नतीजा मिलेगा जो 'कटोरी में घी रखा है', और 'घी में कटोरी रखी है' में फर्क़ न करने पर मिलता है।
किरीटी तरू की जड़ और वासुकि के फण में आश्रय और आश्रित का सम्बन्ध बदल जाने की कोई सर्जनात्मक अनुज्ञा नहीं है। यह मानने पर विवश होना पड़ता है कि कुल मिला कर यहाँ कवि का कहना यही है कि किरीटी-तरू अकाश  से पाताल तक और फिर पाताल से आकाश तक था-बहुत ऊँचा था, उसकी जड़ बहुत गहरी थी। यह कहने के लिए जैसे एक मिथकीय प्रस्तुति वैसे दूसरी मिथकीय प्रस्तुति, 'जड़ फण पर टिकी है' या 'फण जड़ पर टिका है', इससे क्या फर्क़ पड़ता है।
ऐसा करना तभी संभव हो पाता है जब मिथक को झूठा माना जाय, 'अलंकरण-मात्र' माना जाय। लेकिन मिथक झूठ नहीं है और अलंकरण, 'अलंकरण मात्र' नहीं है। जब तक मिथक को आप एकदम सच नहीं मानते तब तक आप उसके इस्तेमाल का हक भी नहीं रखते।
असाध्यवीणा बहिर्हेतुज (=एलोक्थोनस) मुद्राओं  की अभिव्यंजना के विस्तार की चिकीर्षा में रची गयी है और इस अर्थ में वह पूर्णत: विफल कविता है। लेकिन यह केवल विफलता  नहीं है, यह एक सबक है। यह रत्नों की कविता है, रत्नगर्भा की नहीं।
असाध्यवीणा  को एक 'अत्यन्त सफल आधुनिक कविता' भी मैं कह सकता हूँ, लेकिन हर्ष से नहीं, विषाद से-
पाते हैं अपने हाल में मजबूर सबको हम,
कहने को इख्तियार है, पर इख्तियार क्या।
(मीर तक़ी मीर)
इस लेखक को पढ़कर ऐसा लग सकता है कि इसके पीछे की स्थापना यह है कविता केवल वहीं सही शब्दों से बन जाती है और ग़लत शब्दों के चुनाव से बिगड़ जाती है। यदि ऐसा लगे तो यह मेरे लेखन का दोष है, क्योंकि यह स्थापना सत्य नहीं है। शब्द चयन पर ध्यान केन्द्रित रखने के पीछे मेरा कारण यह है कि मैं इस लेख को प्रतिवाच्य (=रिफ्यूटेबल) बनाना चाहता था, और उसकी कोई और विधि मेरी समझ में नहीं आयी।