Monday, February 07, 2011

अस्त होने के बाद भी उदय का एहसास



( निराला जयन्ती पर विशेष )


सखी बसन्त आया।

भरा हर्ष वन के मन,


नवोत्कर्ष छाया।

उपर्युक्त पंक्ति को पढ़ते ही बसंत की याद ताजा हो जाती है। यह दिवस माँ सरस्वती के आराधना दिवस के रूप में मनाया जाता है। सरस्वती आराधना के लिए हिन्दी साहित्य में प्रचलित गीत-

वर दे वीणा वादिनी वर दे,
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नव,
भारत में भर दे........।
बरबस हमारे ओठों पर आ जाते हैं और उस गीतकार की याद ताजा हो जाती है जिसे जन्म के कुछ समय बाद 'निराला' के नाम से जाना गया। यह मात्र एक संयोग है कि सरस्वती के इस वरद् पुत्र का जन्म सन् 1896 में माघ मास की बसंत पंचमी के दिन 'गढ़ाकोला' में हुआ, इनके जन्म का नाम 'सूर्यकुमार' था। लेकिन बहुत दिन तक जन्मनाम रास न आने के कारण स्वयं ही परिवर्तित कर 'सूर्यकान्त त्रिपाठी' कर लिया।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में निराला जी ही एक ऐसे व्यक्तित्त्व हैं, जिन पर जितना भी कार्य किया जाता है; उससे अधिक वह पक्ष अछूता ही लगता है। आपका साहित्यिक जन्म कवि रूप में हुआ लेकिन यह साहित्य के लिए अत्यंत खेद का कारण रहा कि आपकी पहली ही रचना वापस कर दी गयी। यह रचना सन् 1916 में लिखी गयी भी जो सरस्वती पत्रिका से वापस होने के बाद 'माधुरी' में प्रकाशित हुई। बड़ी बात यह नहीं थी कि इनकी रचना वापस हुई, बहुत से लेखकों की पहली रचना वापस ही होती है, वह आपके साथ भी हुई लेकिन इसके बाद आपने साहित्य को जिस प्रकार से अपने जीवन का हिस्सा बनाया; वह सम्भवत: किसी के साथ नहीं हो सकता।
निराला के साहित्य में एक साथ आत्मनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता, कवि एवं योगी, सरलता ओर जटिलता, कोमलता एवं कठोरता, उग्रता एवं विनम्रता, अहंवादिता एवं इसका विरोध, रहस्यवादिता, छायावादिता, प्रगतिवादिता, परम्परावादिता एवं स्वच्छंदवादिता समग्रता में दिखाई पड़ जाता है। यदि कहा जाय कि निराला जी का व्यक्तित्व और साहित्य विपरीत धाराओं का संगम है तो अनुचित न होगा।
निराला ने लगभग 40 वर्षो तक काव्य सृजन किया, अनामिका, परिमल, तुलसीदास, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा,बेला, नये पत्ते, अर्चना, आराधना, गीतिगुंज, साध्यकाकली संग्रह है जिनमें आपने अपने काव्य को संग्रहीत किया है। निराला के काव्य का वैविध्य उनकी रचनाओं में स्पष्टत: व्यंजित हो ही जाता है। उदाहरण के लिए यदि 'जूही की कली' को छायावादी रचना माना जाय तो 'कुकुरमुत्ता' इसके विरोध में दिखाई पड़ सकता है। एक तरफ 'तुलसीदास' और 'राम की शक्ति-पूजा' में उदात्त्ता के गुण देखे जा सकते हैं, तो 'रानी और कानी', 'खजोहरा', 'गर्म पकौड़ी' जैसी व्यंग्य रचनाएँ भी मिलती हैं। इसी के साथ पंचवटी प्रसंग' नामक नाटय गीत भी दिखाई पड़ता है।
निराला के शिल्प पक्ष में छंद विधान को एक विशिष्ट उपलब्धि के रूप में स्वीकार कर लिया गया है और यह माना जाता है कि हिन्दी साहित्य में मुक्त छंद की शुरुआत 'निराला' से ही हुई्र है। इसकी भी शुरुआत उनके 'परिमल' से माना जाता है। निराला जी ने अपने साहित्य में यह स्वीकार किया है कि छन्द एक प्रकार का बंधन होता है और बंधन में रहकर काव्य-सृजन नहीं किया जा सकता। लेकिन उनका आग्रह यह भी था कि मुक्त छंद के धरातल पर रहकर भी छंदबध्द रचना सम्भव है। उन्होंने अपने मुक्त प्रकृति के अनुसार बधी-बधार्इ्र लीक पर चलना स्वीकार नहीं किया। वे अपने काव्य लेखन मेंं छंदों के अनेक प्रयोग किये और उन प्रयोगों को वे मौलिक मानते थे; जिसमें किसी परिपाटी या परम्परा का नितान्त अभाव था। यह कहना बहुत अनुचित नहीं लगता, जिस प्रकार से 'निराला' अपने काव्य के क्षेत्र में मौलिकता से ओत-प्रोत थे, उसी प्रकार से उनका छंद-विधान नितान्त मौलिक था। 'यमुना के प्रति' रचना को देखने पर उसका एक नमूना बरबस दीख जाता है-
बता कहाँ अब वह वंशी वट
कहाँ गये नटनागर श्याम?
चल चरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृन्दाधाम?
इनमें मात्राओं पर अत्यंत सजगता दिखाई पड़ती है, यदि हम मात्रात्मक विवेचन करें तो प्रथम और तृतीय पंक्ति में 16, 16 तथा द्वितीय और चतुर्थ पंक्ति में 15, 15 मात्राएँ मिलती हैं।
निराला का काल छायावाद का काल माना जाता हैं यह एक तरफ तो छंद के बंधनों से मुक्ति की बात करते हुए अपने साहित्य में इसकी उपस्थिति को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर वह सड़ी गली मान्यताओं से भी मुक्तता की बात करते दिखाइ्र पड़ते हैं। छायावाद के पूर्व प्रेम सम्बन्धी जो पुरातन धारणाएं थी, उसकी भी मुक्ति की बात आपने अपने साहित्य में किया है। वे साहित्य को रूढ़ियों से पूर्णत: मुक्ति चाहते थे। इस कारण उन पर क्रांन्तिकारी का भी आरोप मढ़ा गया। लेकिन उनके मुक्ति का तात्पर्य ऋणात्मक न होकर धनात्मक था। उनके मुक्ति में एक प्रकार की सोच थी, विचार सारणियों का प्रवाह था जो कि एक नये क्षितिज की ओर प्रेरित करता रहा। वह विदेशी शासन से मुक्ति की बात करने के साथ ही साथ धरती से भी मुक्ति की चाह रखते हैं।
निराला का काव्य पौरुष, ओज आदि से परिपूर्ण था। 'बादल राग', 'जागो फिर एक बार','रामकी शक्ति-पूजा' आदि में इस स्थिति को देखा जा सकता है--

''जागो फिर एक बार!
प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हैं
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार-''
ठीक इसी प्रकार बादल राग में भी-
''झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर।..........'' में ओजस्विता के साथ-साथ लयात्मकता पूर्णत: विद्यमान हैं
आप पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि उनमें लक्षणात्मक चित्रों का अभाव है। यदि इसे सही भी माना जाय तो वह उस अभाव को संगीतमय वातावरण द्वारा पूरित कर देते हैं। यदि निराला के कविता का सस्वर पाठ सुना जाय तो काव्यगत संगीत से अर्थ को पूर्णत: प्राप्त किया जा सकता है-
''रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम रावण का अपराजेय समर,''
इन पंक्तियों में यद्यपि कि लक्षणात्मकता का अभाव है लेकिन अर्थ निष्पत्ति में पूर्णत: सहायक हो गयी है।
निराला ने अपने भावों के बदलाव के साथ ही काव्य रूपों का चयन भी अत्यन्त सजगता से किया है। जिस समय निराला के हृदय के उच्छलित उद्गार को व्यक्त करने की इच्छा हुई्र तो वे 'गीत' लिखे। जब राष्ट्रीयता की उद्भावना करने की उत्कण्ठा जागृत हुई्र तो 'प्रगीत' की रचना की। जब व्यक्तिगत साधना अथवा विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करना उनका लक्ष्य रहा तो 'आख्यान प्रगीत' लिखे और जीवन दर्शन के साथ भारतीयता को व्यक्त करना चाहा तो आपने 'गीति नाटय' का सहारा लिया। निराला के काव्य का यदि गहन अवलोकन किया जाए तो उसके बहुविधि रूप सहजता से द्रष्टव्य हो जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि निराला ने सिर्फ काव्य सृजन ही किया। उनका लेखक रूप भी कवि रूप से किसी भी तुलना में कम नहीं था। आपने आठ उपन्यास 'अप्सरा', 'अलका', 'चोटी की पकड', 'काले कारनामें', 'प्रभावती', 'निरुपमा', 'कुल्ली भाट', बिल्लेसुर बकरिहा, इन्दुलेखा, चमेली (अपूर्ण) तथा चौबीस कहानियाँ जिनको क्रमश:-'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीबी', नामक कहानी संग्रहों में संग्रहीत किया गया है। आपने अपने गद्य में भी काव्यात्मकता को बनाये रखा है। 'अप्सरा' उपन्यास में यदि अप्सरा के माध्यम से तत्कालीन समाज आदि का चित्रण किया है तो 'कुल्ली भाट' में अछूत की कहानी को लेखन का माध्यम बनाया है। 'बिललेसुर बकरिहा' में अनायकत्व की कहानी को निराला ने नायकत्व प्रदान किया हैं अपने कहानियों में निराला जी ने पुरानी किस्सागों प्रणाली को नये विधि से 'अर्थ' कहानी में चित्रित्र किया हैं 'लिली' में प्रेम की संवेदना का उदाहरण चित्रित किया हैं।
निराला का आलोचनात्मक व्यक्तित्व भी अत्यंत प्रभाव शाली था। यहाँ तक कि 'सरस्वती' भी भी आपके आलोचना से बच न सकी। 'प्रबंध पद्म', 'प्रबंध प्रतिमा', 'चाबुक', 'चयन', और 'संग्रह' इनके आलोचनात्मक ग्रंथ हैं।
निराला जी ने अनुवाद में भी अपनी लेखनी चलाई्र है बहुत से बंगला कवियों रवीन्द्र नाथ ठाकुर, चंडीदास, विवेकानन्द  आदि के  साहित्य का हिन्दी में अनुवाद किया। साहित्यिक जीवन के साथ 'निराला' का व्यक्तिगत जीवन भी अनेक विप्लव से घिरा रहा। वह बहुत बडे दानी थे उनसे कोई भी  राहगीर कुछ भी माँग लेता तो बिना भविष्य की परवाह किये वे अपना सर्वस्व दे देते थे। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि कर्ण के समान दाता कवि की कन्या चंद रुपयों के अभाव में रुग्णावस्था में चल बसी, जिसकी याद में निराला ने 'क्या कहूँ आज जो नहीं कही, दु:ख ही जीवन की कथा-रही' कविता के माघ्यम से 'सरोज स्मृति' की रचना की जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि के रूप में मानी जा सकती है।
जीवन के बाल्य काल में ही माता की मृत्योपरान्त निराला जी अकेले झंझावातों को झेलते रहे। निराला ने जीवन के अंतिम क्षण को अत्यन्त कष्ट में बिताया। उनका महाकाय शरीर अनेक रोगाणुओं से ग्रस्त होकर क्षीण हो गया था। ऑंखें धँस गयी थी और मानसिक संतुलन भी लगभग समाप्त सा हो गया। 15 अक्टूबर 1961 को बीतराग की तरह रहने वाले इस महाकवि की जीवनलीला समाप्त हो गयी। निराला जी इस लोक में न रहने के बाद भी साहित्य के सभी विधा कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि के माध्यम से हमारे बीच हमेशा उपस्थित रहेंगें।